Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


(34)

पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय बडी मेज़ के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोग़ा थे, गोरे से, शौकीन, जिनकी बडी-बडी आंखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बग़ल में नायब दारोग़ा थे। यह सिक्ख थे, बहुत हंसमुख, सजीवता के पुतले, गेहुंआं रंग, सुडौल, सुगठित शरीरब सिर पर केश था, हाथों में कड़ेऋ पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज़ की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर अधेड़, सांवला, लंबा आदमी था, कौड़ी की-सी आंखें, फले हुए गाल और ठिगना कदब डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा जवान था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषीब इसकी लंबी नाक और ऊंचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का एक कश लेकर कहा, 'बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा। और कोई अल्टरनेटिव नहीं है।'
इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर कहा, 'हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी, हलफ से कहता हूं। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसी गुट कर रक्खी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।'
डिप्टी, 'उस मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका कुछ दबाव पड़े।'
इंस्पेक्टर-'हलफ से कहता हूं, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लङके के पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राज़ी नहीं होता।'
कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा,मुकदमा नहीं चल सकता मुफ्त का बदनामी हुआ। इंस्पेक्टर,एक हर्तिे की मुहलत और लीजिए, शायद कोई टूट जाय। यह निश्चय करके दोनों आदमी यहां से रवाना हुए। छोटे दारोग़ा भी उसके साथ ही चले गए। दारोग़ाजी ने हुक्का मंगवाया कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा, 'दारोग़ाजी, लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ,पहले नाम और सयनत दोनों ग़लत बतलाई थीं। देवीदीन खटिक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। ज़रा डांट बताइएगा तो सब कुछ उगल देगा।'
दारोग़ा-'वही है न जिसके दोनों लङके---ब'
सिपाही-'जी हां, वही है।'
इतने में रमानाथ भी दारोग़ा के सामने हाज़िर किया गया। दारोग़ा ने उसे सिर से पांव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले, 'अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो कैसा साफ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहां कब से आए हो?' कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया, 'सब हाल सच-सच कह दो, तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जाएगी। '
रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा, 'अब तो आपके हाथ में हूं, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रूपये मुझसे ख़र्च हो गए। मैं वक्त पर रूपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा, नहीं तो इतने रूपये इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहां से भागकर यहां चला आया। इसमें एक हर्फ भी ग़लत नहीं है।'
दारोग़ा ने गंभीर भाव से कहा, 'मामला कुछ संगीन है,क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था? '
'मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी शराब मुंह से लगाई हो।'
कांस्टेबल ने विनोद करके कहा,मुहब्बत के बाज़ार में लुट गए होंगे, हुजूर।'
रमा ने मुस्कराकर कहा, 'मुझसे फाकेमस्तों का वहां कहां गुजर?'
दारोग़ा -'तो क्या जुआ खेल डाला? या, बीवी के लिए जेवर बनवा डाले!'
रमा झेंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।
दारोग़ा-'अच्छी बात है, तुम्हें भी यहां खासे मोटे जेवर मिल जायंगे!'
एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खडाहो गया। दारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा, 'क्या काम है यहां?'
देवीदीन-'हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दया की नज़र रहे हुजूर, बेचारे बडे सीधे आदमी हैं।'
दारोग़ा -'बचा सरकारी मुलज़िम को घर में छिपाते हो, उस पर सिफारिश करने आए हो!'
देवीदीन-'मैं क्या सिफारिस करूंगा हुजूर, दो कौड़ी का आदमी।'
दारोग़ा-'जानता है, इन पर वारंट है, सरकारी रूपये ग़बन कर गए हैं।'
देवीदीन-'हुजूर, भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही, ख़र्च हो गए होंगे।
यह कहते हुए देवीदीन ने पांच गिन्नियां कमर से निकालकर मेज़ पर रख दीं।
दारोग़ा ने तड़पकर कहा, 'यह क्या है?'
देवीदीन-'कुछ नहीं है, हुजूर को पान खाने को।'
दारोग़ा -'रिश्वत देना चाहता है! क्यों? कहो तो बचा, इसी इल्ज़ाम में भेज दूं।'
देवीदीन-'भेज दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जाएगी। वहीं बैठा आपको दुआ दूंगा।'
दारोग़ा -'अबे इन्हें छुडाना है तो पचास गिन्नियां लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी गिरफ्तारी पर पांच सौ रूपये का इनाम है!'
देवीदीन-'आप लोगों के लिए इतना इनाम हुजूर क्या है। यह ग़रीब परदेसी आदमी हैं, जब तक जिएंगे आपको याद करेंगे।'
दारोग़ा -'बक-बक मत कर, यहां धरम कमाने नहीं आया हूं।'
देवीदीन-'बहुत तंग हूं हुजूर।दुकानदारी तो नाम की है।'
कांस्टेबल-'बुढिया से मांग जाके।'
देवीदीन-'कमाने वाला तो मैं ही हूं हुजूर, लड़कों का हाल जानते ही हो तन-पेट काटकर कुछ रूपये जमा कर रखे थे, सो अभी सातों-धाम किए चला आता हूं। बहुत तंग हो गया हूं।
दारोग़ा -'तो अपनी गिन्नियां उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।'
देवीदीन-'आपका हुकुम है, तो लीजिए जाता हूं। धक्का क्यों दिलवाइएगा।'
दारोग़ा -'कांस्टेबल सेध्द इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।'
देवीदीन के होंठ आवेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी, जैसे कोई चिडिया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर विह्नल हो गई हो वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खडारहा, फिर पीछे गिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर एक ही पल में फिर लौटा और दारोग़ा से बोला, 'हुजूर, दो घंटे की मुहलत न दीजिएगा?'
रमा अभी वहीं खडाथा। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला, 'दादा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे भी यहां होते, तो इससे ज्यादा और क्या करते! मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार ---'
देवीदीन ने आंखें पोंछते हुए कहा, 'कैसी बातें कर रहे हो, भैया! जब रूपये पर आई तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं है। इतने रूपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूं। अभी घर बेच दूं, तो दस हज़ार की मालियत है। क्या सिर पर लाद कर ले जाऊंगा। दारोग़ाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो, मैं रूपये की गिकर करके थोड़ी देर में आता हूं।'
देवीदीन चला गया तो दारोग़ाजी ने सह्रदयता से भरे स्वर में कहा, 'है तो खुर्राट, मगर बडा नेक।तुमने इसे कौनसी बूटी सुंघा दी?'
रमा ने कहा, 'गरीबों पर सभी को रहम आता है।'
दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, 'पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियां लावे।'
रमानाथ-'अगर लाए भी तो उससे इतना बडा तावान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें।'
दारोग़ा -'मुझे पांच सौ के बदले साढ़े छः सौ मिल रहे हैं, क्यों छोड़ूं। तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाय, तो क्या बुराई है।
रमानाथ-'जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्द पीस लूं उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नज़रों से बचकर रह सकता हूं। अब मालूम हुआ कि यह बेकली और आठों पहर पकड़ लिए जाने का ख़ौफ जेल से कम जानलेवा नहीं।'
दारोग़ाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। मेज़ के दराज़ से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर-उधर उल्टे, तब नम्रता से बोले,अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊं कि देवीदीन के रूपये भी बच जाएं और तुम्हारे ऊपर भी आंच न आए तो कैसा?'
रमा ने अविश्वास के भाव से कहा, ऐसी तरकीब कोई है, मुझे तो आशा नहीं।'
दारोग़ा-'अभी साई के सौ खेल हैं। इसका इंतज़ाम मैं कर सकता हूं। आपको महज़ एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी?'
रमानाथ-'झूठी शहादत होगी।'
दारोग़ा-'नहीं, बिलकुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे।म्युनिसिपैलिटी के पंजे से तो छूट जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। यों अगर चालान हो गया तो पांच साल से कम की सज़ा न होगी। मान लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की मां कब तक ख़ैर मनाएगी। जिंदगी ख़राब हो जायगी। तुम अपना नफा-नुकसान ख़ुद समझ लो। मैं ज़बरदस्ती नहीं करता।'
दारोग़ाजी ने डकैती का वृत्तांत कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमे समाचारपत्रों में पढ़ चुका था। संशय के भाव से बोला, 'तो मुझे मुख़बिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक था। यह तो झूठी शहादत हुई।'
दारोग़ा-'मुआमला बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसाएंगे। वही लोग जेल जाएंगे जिन्हें जाना चाहिए। फिर झूठ कहां रहा- डाकुओं के डर से यहां के लोग शहादत देने पर राज़ी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूं कि आपको कुछ झूठ बोलना पड़ेगा, लेकिन आपकी जिंदगी बनी जा रही है, इसके लिहाज़ से तो इतना झूठ कोई चीज़ नहीं। ख़ूब सोच लीजिए। शाम तक जवाब दीजिएगा।'
रमा के मन में बात बैठ गई। अगर एक बार झूठ बोलकर वह अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित्त कर सके और भविष्य भी सुधार ले, तो पूछना ही क्या जेल से तो बच जायगा। इसमें बहुत आगा-पीछा की जरूरत ही न थी। हां, इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि उस पर फिर म्युनिसिपैलिटी अभियोग न चलाएगी और उसे कोई जगह अच्छी मिल जायगी। वह जानता था, पुलिस की ग़रज़ है और वह मेरी कोई वाजिब शर्त अस्वीकार न करेगी। इस तरह बोला, मानो उसकी आत्मा धर्म और अधर्म के संकट में पड़ी हुई है, 'मुझे यही डर है कि कहीं मेरी गवाही से बेगुनाह लोग न फंस जाएं।'
दारोग़ा -'इसका मैं आपको इत्मीनान दिलाता हूं।'
रमानाथ-'लेकिन कल को म्युनिसिपैलिटी मेरी गर्दन नापे तो मैं किसे पुकारूंगा?'
दारोग़ा -'मजाल है, म्युनिसिपैलिटी चूं कर सके। गौजदारी के मुकदमे में मुददई तो सरकार ही होगी। जब सरकार आपको मुआफ कर देगी, तो मुकदमा कैसे चलाएगी। आपको तहरीरी मुआफीनामा दे दिया जायगा, साहब।'
रमानाथ-'और नौकरी?'
दारोग़ा -'वह सरकार आप इंतज़ाम करेगी। ऐसे आदमियों को सरकार ख़ुद अपना दोस्त बनाए रखना चाहती है। अगर आपकी शहादत बढिया हुई और उस फ्री की जिरहों के जाल से आप निकल गए, तो फिर आप पारस हो जाएंगे!' दारोग़ा ने उसी वक्त मोटर मंगवाई और रमा को साथ लेकर डिप्टी साहब से मिलने चल दिए। इतनी बडी कारगुज़ारी दिखाने में विलंब क्यों करते?डिप्टी से एकांत में ख़ूब ज़ीट उडाई। इस आदमी का यों पता लगाया। इसकी सूरत
देखते ही भांप गया कि मगरूर है, बस गिरफ्तार ही तो कर लिया! बात सोलहों आने सच निकली। निगाह कहीं चूक सकती है! हुजूर, मुज़रिम की आंखें पहचानता हूं। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी के रूपये ग़बन करके भागा है। इस मामले में शहादत देने को तैयार है। आदमी पढ़ा-लिखा, सूरत का शरीफ और ज़हीन है।'
डिप्टी ने संदिग्ध भाव से कहा, 'हां, आदमी तो होशियार मालूम होता है।'
'मगर मुआफीनामा लिये बग़ैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ कि हम लोग इसके साथ कोई चाल चल रहे हैं, तो साफ निकल जाएगा। '

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